मिल्कीपुर उपचुनाव, जो अब सिर्फ एक चुनाव नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रतिष्ठा की जंग बन चुका है, में एक ही जाति से तीन उम्मीदवारों के उतरने ने मुकाबले को और दिलचस्प बना दिया है। समाजवादी पार्टी (सपा), भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), और चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी (ASP) के बीच तीव्र संघर्ष हो रहा है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि यह मुकाबला केवल जाति की नहीं, बल्कि स्थानीयता और राजनीतिक प्रतिष्ठा की भी जंग बन चुकी है।
सपा ने अजीत प्रसाद को टिकट दिया है, जो अयोध्या सांसद अवधेश प्रसाद के बेटे हैं। बीजेपी ने उसी बिरादरी से चंद्रभान पासवान को उम्मीदवार बनाया है, जबकि चंद्रशेखर आजाद ने सूरज प्रसाद को मैदान में उतारा है, जो पहले सपा में थे, लेकिन टिकट के लिए लड़ा और बाद में बगावत कर चंद्रशेखर आजाद का साथ देने लगे। इन तीनों उम्मीदवारों के बीच मुकाबला अब जाति और स्थानीयता के बीच हो चुका है। मिल्कीपुर विधानसभा पर बीजेपी और सपा के बीच सीधा मुकाबला है। बीजेपी ने अपने इतिहास में हाल के समय में हुए उपचुनावों में शानदार प्रदर्शन के बावजूद, इस उपचुनाव को प्रतिष्ठा की लड़ाई बना लिया है। वहीं, सपा ने फैजाबाद लोकसभा सीट पर अपनी शानदार जीत के बाद इस उपचुनाव को बीजेपी के खिलाफ एक और बड़ी जीत के रूप में देखा है। हालांकि, बहुजन समाज पार्टी के नहीं होने से यह लड़ाई त्रिकोणीय नहीं हो पाई, लेकिन चंद्रशेखर आजाद ने अपनी पार्टी को मैदान में उतारकर इस लड़ाई में पेंच डाल दिया है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या तीन उम्मीदवारों के होते हुए भी यह चुनाव त्रिकोणीय बन पाएगा? जवाब शायद नहीं है। सूरज प्रसाद की बगावत से सपा को नुकसान हो सकता है, लेकिन इससे बीजेपी को फायदा मिलेगा। सूरज प्रसाद, जो पहले सपा के टिकट के लिए दावेदार थे, अब चंद्रशेखर आजाद के उम्मीदवार के रूप में सामने आए हैं। उनका आरोप है कि उन्होंने लोकसभा चुनाव में अवधेश प्रसाद की जीत के लिए कड़ी मेहनत की, लेकिन जब टिकट का सवाल आया, तो उन्हें दरकिनार कर दिया गया और सपा ने अपने बेटे को टिकट दे दिया। सूरज प्रसाद की इस बगावत से सपा के वोट बैंक में खलल पड़ सकता है, जिससे बीजेपी को फायदा हो सकता है। वहीं दूसरी तरफ सपा और बीजेपी के बीच अब स्थानीय बनाम बाहरी की बहस छिड़ चुकी है। सपा अजीत प्रसाद को स्थानीय बताकर चंद्रभान पासवान को बाहरी के रूप में प्रचारित कर रही है। लेकिन जब चंद्रभान पासवान का घर रुदौली में है और वह वहां जिला पंचायत सदस्य रहे हैं, तो क्या उन्हें बाहरी करार दिया जा सकता है? यह सवाल अहम बन गया है, क्योंकि स्थानीयता को लेकर बहस चुनाव की दिशा तय कर सकती है।
इस उपचुनाव में निर्णायक भूमिका सामान्य वर्ग और अन्य पिछड़ा वर्ग ओबीसी की होगी। बीजेपी और सपा दोनों ही इन वर्गों को अपने पाले में लाने के लिए पूरी ताकत लगा रही हैं। बीजेपी, सीएम योगी आदित्यनाथ के नाम और काम के साथ ओबीसी और सामान्य वर्ग के वोटों को साधने की कोशिश कर रही है, वहीं सपा भी इन वर्गों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए हर मुमकिन प्रयास कर रही है। सपा ने अपने ब्राह्मण वोट बैंक को साधने के लिए भी दांव चला है। ब्राह्मण नेताओं के सक्रिय प्रचार से यह स्पष्ट है कि सपा इस वर्ग को अपने साथ लाने के लिए हर कदम उठा रही है। कांग्रेस भी सपा का समर्थन कर रही है, लेकिन यह सवाल उठता है कि क्या उनकी ये कोशिशें बीजेपी की मजबूत स्थिति को चुनौती दे पाएंगी? मिल्कीपुर उपचुनाव, जो एक सामान्य चुनाव से कहीं बढ़कर है, अब दोनों प्रमुख दलों के लिए साख का सवाल बन चुका है। 5 फरवरी को मतदान और 8 फरवरी को परिणाम के बाद ही यह साफ होगा कि इस प्रतिष्ठा की लड़ाई में किसकी जीत होती है और कौन हारता है।