87 साल की उम्र में मशहूर एक्टर ने दुनिया को कहा अलविदा,मनोज कुमार की जिंदगी के अनसुने किस्से !

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भारत कुमार उर्फ मनोज कुमार उर्फ हरिकिशन गिरी गोस्वामी…बेशक आज हम सबको छोड़कर जा चुके हैं…लेकिन अपनी अदाकारी और जुदा अंदाज के जरिए वे हमेशा इस दुनिया में अमर रहेंगे. वो चेहरे पर हाथ रखकर…थोड़ा घूमकर… अपनी बात कहना…उफ्फ…उनका ये अंदाज़ एक जमाने में इतना पॉपुलर हुआ कि बड़ी संख्या में लोग उनके इस अंदाज़ को कॉपी करने लगे. फिल्मों में अपनी वे धीमी और सॉफ्ट आवाज़ में जब डायलॉग बोलते थे तो लोगों के दिलों की गहराई तक तक उतर जाते थे. मनोज कुमार ने भगत सिंह…मेरे देश की धरती… उपकार…पूरब और पश्चिम…क्रांति… जैसी एक के बाद एक देशभक्ति से ओपप्रोत फिल्में दीं…तो लोगों के दिलों में उनकी छवि एक देशभक्त की बन गई. भोली सी सूरत और मीठी सी आवाज़….मनोज कुमार की चर्चा होते ही दिलों में एक बहुत ही सादी शख्सियत के शख्स की तस्वीर उभर जाती…वह शख्स…जो दुनिया की चालाकियों से परे अपने देश पर मर मिटने के लिए हरदम तैयार रहता है

1947 में बंटवारे के बाद मनोज कुमार जब परिवार समेत भारत पहुंचे तो उनकी उम्र महज 10 साल की थी. दिल्ली में उन्होंने स्कूली शिक्षा ली और फिर यहीं के हिंदू कॉलेज से स्नातक किया. कैरियर बनाने की बारी आई तो उन्होंने अदाकारी की दुनिया में जाने का फैसला किया. इस फैसले के पीछे बड़ी वजह भी थी. वे उस समय के सुपर स्टार्स अशोक कुमार, दिलीप कुमार और कामिनी कौशल जैसे कलाकारों से बेहद प्रभावित थे. उस समय कलाकारों में अपना असली नाम बदलने का भी काफी चलन था …सो फिल्मों में आने से पहले हरिकिशन गिरी गोस्वामी भी मनोज कुमार बन गए और इस नाम ने उन्हें भर-भर कर दौलत और शोहरत भी दी.

कड़े संघर्ष के बाद चखा कामयाबी का स्वाद
साल में 1957 में फैशन से फिल्मी दुनिया में कदम रखने वाले इस कलाकार को हालांकि शुरुआत में सफलता के काफी तरसना पड़ा. फैशन के बाद सहारा, चांद, हनीमून जैसी कई फिल्में आईं…लेकिन पहचान मिलनी शुरु हुई 1961 में रिलीज़ हुई फिल्म कांच की गुड़िया से, हालांकि कामयाबी उन्हें तब तक भी नहीं मिल पाई थी. उसके बाद पिया मिलन की आस, सुहाग सिंदूर, रेशमी रूमाल में लीड रोल में मनोज कुमार ने अपनी अदाकारी से लोगों के दिलों में जगह तो बना ली. लेकिन अभी भी वे सफलता के उस स्वाद के लिए तरस रहे थे, जो उनके फिल्मी सफर को पंख लगा दे. फिर साल आया 1962….जब मनोज कुमर की फिल्में आईं ‘हरियाली और रास्ता’ और ‘वो कौन थी’…ये दोनों ही फिल्मों को लोगों ने इस कदर प्यार दिया कि उनकी कामयाबी का जाम पीने को तरसता उनका प्यास का घड़ा कामयाबी के पानी से लबालब भर गया. उसके बाद तो मनोज कुमार ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. कामयाबी से भरे घड़े से वे लगातार अपने प्यास बुझाते चले गए.

1965 में फैंस को मिला ‘भारत कुमार’
साल 1965…मनोज कुमार के लिए मानों खुशियों की बरसात बनकर बरसा. इस समय उनकी फिल्म भगत सिंह रिलीज़ हुई…जिसे दर्शकों का तो भरपूर प्यार मिला ही…साथ ही अभी तक उनके लिए कुछ खास ना लिख पाने वाले समीक्षकों की भी बोलती बंद हो गई. इस फिल्म से ही उनकी छवि देशभक्त की भी बन गई. बात यहां तक पहुंच गई कि तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उन्हें बुलाकर देशभक्ति से भरी एक फिल्म बनाने के लिए कहा. जिसके बाद बनी फिल्म उपकार…किसान और जवान के संघर्ष पर आधारित इस फिल्म ने कामयाबी के झंडे गाड़ दिये. हालांकि, इस फिल्म को देखने से पहले खुद लाल बहादुर शास्त्री इस दुनिया से रुख्सत हो गए थे. ताशकंद से लौटने के बाद वे इसे देखने वाले थे. लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाया…क्योंकि वहीं से ही उनकी रहस्यमयी मौत की खबर आई.

1987 से ढलना शुरु हुआ कामयाबी का सूरज
कहते हैं कि जब कोई इन्सान कामयाबी की चोटी पर पहुंच जाता है तो फिर धीरे-धीरे नीचे भी उतरना होता है. 1980-85 तक लगातार कामयाबी की सीढ़िया चढ़कर मंज़िल छू चुके मनोज कुमार का फिल्मी सफर का सूरज साल 1987 के बाद से ढलना शुरू हो गया. इसी साल उनकी कलयुग और रामायण, संतोष और क्लर्क जैसी फिल्में आईं, लेकिन ये तीनों ही बुरी तरह से बॉक्स ऑफिस पर उल्टे मुंह गिर गईं. इन असफलताओं से आहत हुए मनोज कुमार ने अगली फिल्म मैदान-ए-जंग के बाद अपनी अदाकारी के सफर को विराम दे दिया. बेहतरीन अदाकारी, फिल्म निर्माण और निर्देशन के लिए मनोज कुमार को कुल 7 फिल्म फेयर पुरस्कारों से नवाज़ा गया. इनमें से सबसे पहला फिल्म फेयर पुरस्कार उन्हें ‘उपकार’ के लिए मिला था. इस फिल्म ने बेस्ट फिल्म, बेस्ट डायरेक्टर, बेस्ट स्टोरी और बेस्ट डायलॉग के लिए चार अवार्ड्स जीते. साल 1992 में उन्हें पद्मश्री और फिर साल 2016 में उन्हें दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड से सम्मानित किया गया.

अदाकारी की दुनिया को अलविदा कहने के बाद हालांकि मनोज कुमार ने सियासत में भी किस्मत आजमाई. 2004 के लोकसभा चुनाव में वे भारतीय जनता पार्टी से उम्मीदवार बने…लेकिन उनके हाथ कुछ खास नहीं लग सका.

आखिरकार हार गए मौत से ज़िंदगी की जंग…
इस दौरान मनोज कुमार उम्र संबंधी बीमारियों से ग्रस्त रहने लगे. इसी बीच उन्हें लिवर की बीमारी का भी पता चला. वे लगातार इसका इलाज करवाते रहे. लेकिन बाद में डॉक्टरों ने उन्हें लिवर सिरोसिस जैसी गंभीर बीमारी के बारे में बताया. काफी समय तक इलाज करवाने के बाद भी हालत बिगड़ती रही तो इस साल 21 फरवरी को उन्हें अस्पताल में दाखिल करवाया गया था. लेकिन बीमारियों ने आखिरकार इस बेहतरीन अदाकार…बहुत ही उम्दा इन्सान को हमसे चुरा लिया और आज 4 अप्रैल को एक तारा बनकर चमकने के लिए मनोज कुमार हम सबसे दूर चले गए.

 

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